तालिबान के शिकंजे में अफगानिस्तान: अफगान सरकार और तालिबान के बीच सुलह का रास्ता निकले बिना चलता रहेगा हिंसा का दौर
अफगानिस्तान में जमीनी हालात तेजी से बदल रहे हैं। हाल में तालिबान ने देश के कई इलाकों पर अपना शिकंजा और कसा है। उत्तर पूर्व, उत्तरी और पश्चिमी इलाकों में उसकी पैठ और मजबूत हुई है। अफगान सरकार भले ही यह दावा करे कि सुरक्षा स्थिति अभी भी उसके नियंत्रण में है, लेकिन तथ्य कुछ और ही कहानी बयान करते हैं। कंधार की सुरक्षा स्थिति भी खराब है। इसे देखते हुए भारत ने वहां स्थित अपने वाणिज्य दूतावास के भारतीय कर्मियों को गत सप्ताह वापस बुलाने का फैसला किया। यह बिल्कुल सही था, क्योंकि इन कर्मियों को खतरे में नहीं झोंका जा सकता था। गत वर्ष भी भारत ने जलालाबाद और हेरात स्थित अपने वाणिज्य दूतावास बंद किए थे। उसके पीछे आधिकारिक वजह कोरोना महामारी को बताया गया था, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार को आभास हुआ कि ये दोनों अफगान शहर भारतीय स्टाफ के लिए असुरक्षित हो गए हैं। इन वाणिज्य दूतावास बंद करने से जहां भारतीय हितों को आघात पहुंचा वहीं पाकिस्तान को संतुष्टि मिली। पाकिस्तान ने हमेशा ये मिथ्या आरोप लगाए हैं कि अफगान स्थित इन प्रतिनिधि कार्यालयों का उपयोग भारत उसके लिए समस्याएं उत्पन्न करने में करता रहा है।
तालिबान अमेरिकी सेनाओं की वापसी का फायदा उठा रहा
फिलहाल तालिबान अमेरिकी सेनाओं की वापसी का फायदा उठा रहा है। इससे अफगानिस्तान में अनिश्चितता बढ़ गई है। इससे कुछ सवाल भी उठ रहे हैं। एक तो यही कि क्या तालिबान की मौजूदा सैन्य कार्रवाई के पीछे यह वजह है कि वह अपनी स्थिति मजबूत करके अफगान सरकार से वार्ता करेगा या फिर उसने वार्ता की राह पूरी तरह छोड़ दी है और ताकत से सत्ता हथियाना चाहता है? हमारे पास अभी तक इसका जवाब नहीं है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर तालिबान सत्ता साझेदारी के आधार पर अंतरिम सरकार का हिस्सा बनने पर सहमत हुआ तो वह रक्षा क्षेत्र और खुफिया एजेंसियों पर नियंत्रण की मांग करेगा। शायद अफगान सरकार इस पर राजी न हो। जो भी हो, जब तक अफगान सरकार और तालिबान के बीच सुलह का कोई रास्ता नहीं तलाशा जाता तब तक हिंसा और संघर्ष का दौर चलता रहेगा। इस बीच 14 जुलाई को शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के विदेश मंत्रियों की ताजिकिस्तान में बैठक हुई। वहां अफगानिस्तान की हालत ही मुख्य मुद्दा रहा। इसमें भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर के साथ अन्य सदस्य देशों चीन, रूस, पाकिस्तान और मध्य एशियाई देशों के विदेश मंत्री शामिल हुए। अफगान विदेश मंत्री ने भी इसमें भाग लिया। जयशंकर ने हिंसा की समाप्ति और समस्याओं के शांतिपूर्ण समाधान की अपील की। तालिबान का नाम लिए बिना उन्होंने कहा कि अगर सत्ता ताकत से हासिल की जाएगी तो उसे मान्यता नहीं मिल पाएगी। उन्होंने इस पर भी जोर दिया कि अफगान जनता के अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए और उसके पड़ोसी देशों को अफगान धरती से उपजे आतंकवाद से पीड़ित न होना पड़े।
अफगानिस्तान लोकतांत्रिक देश के रूप में उभरना चाहिए: एससीओ
इस दौरान एससीओ विदेश मंत्रियों ने अफगानिस्तान पर एक संयुक्त बयान भी जारी किया। इसमें कहा गया कि अफगानिस्तान लोकतांत्रिक देश के रूप में उभरना चाहिए, जो हिंसा, चरमपंथ और अवैध अफीम की पैदावार से मुक्त हो। बयान में यह भी उल्लेख था कि अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठनों की गतिविधियां अस्थिरता की सबसे बड़ी वजह हैं। एससीओ विदेश मंत्रियों ने सभी अफगान पक्षों से यह आह्वान भी किया कि वे बल प्रयोग न करें। संयुक्त बयान के अनुसार अफगान सरकार और तालिबान के बीच वार्ता के जरिये ही वहां शांति संभव है। इस सबके बीच पाकिस्तान का यही दावा है कि वह इस पक्ष में है कि अफगान लोग अपने भविष्य का फैसला खुद करें, लेकिन यह भी सत्य है कि वह अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में लगातार हस्तक्षेप कर रहा है। तालिबान की मदद कर रहा पाकिस्तान अफगानिस्तान के मौजूदा हालात के लिए बड़ी हद तक जिम्मेदार है। तालिबान की सहायता करके पाकिस्तान ने उसे यह अवसर दिया कि वह सैन्य सफलता प्राप्त करे। ऐसे में जयशंकर ने उचित ही कहा कि कुछ ऐसी ताकतें भी सक्रिय हैं, जिनका अलग ही एजेंडा है। इससे यही ध्वनित हुआ कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में स्थिरता नहीं चाहता।
अफगानिस्तान में भारत के व्यापक हित जुड़े
सामरिक मोर्चे सहित अफगानिस्तान में भारत के व्यापक हित जुड़े हुए हैं। उसने अफगान सरकार और वहां की राजनीतिक बिरादरी के विभिन्न वर्गों से बेहतरीन संबंध बनाए हैं। काबुल की संस्थाओं का भारत के प्रति बहुत सम्मान भाव है। पूर्व अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई ने भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी पर यह जानते हुए भी कदम बढ़ाए थे कि इससे पाकिस्तान कुपित होगा। अफगानिस्तान को मदद पहुंचाकर भारत अफगान जनता में भी लोकप्रिय हुआ। इस सबके बावजूद जमीनी स्तर पर मौजूदा स्थिति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। तालिबान की मौजूदा स्थिति यकायक मजबूत नहीं हुई है।
भारत को तालिबान से वार्ता करनी चाहिए, भले ही उसकी कड़ियां पाक से जुड़ी हों
जब स्थिति राष्ट्रहित के विपरीत बन रही हो तो सफल कूटनीति के लिए जरूरी हो जाता है कि वह मौके की नजाकत को समझे और उसी हिसाब से कदम उठाए। बीते कई वर्षों से स्पष्ट हो रहा था कि अमेरिका अफगानिस्तान में रणनीतिक हार स्वीकार कर वहां से निकल जाएगा। इसी कारण उसने पाकिस्तान सीमा तक युद्ध का विस्तार नहीं किया। ऐसा किए बिना तालिबान को हराया नहीं जा सकता था। ऐसे में स्वाभाविक था कि अमेरिका और तालिबान में वार्ता होगी, जिससे इस समूह को एक किस्म की अंतरराष्ट्रीय वैधता मिल जाएगी। यही वास्तव में हुआ भी। जहां कई देशों ने तालिबान से सीधे संपर्क साधा, लेकिन भारत ने नहीं किया, पर वह अतीत की बात है। अब भारत के हित में यही है कि वह वास्तविकता को स्वीकार करते हुए तालिबान से वार्ता करे, भले ही उसकी कड़ियां पाकिस्तान से क्यों न जुड़ी हों। ऐसा करके भारत तालिबान की कट्टरपंथी सोच पर मुहर नहीं लगाएगा। वास्तव में ऐसे संवाद से वह उसे यह बता सकता है कि दुनिया मध्यकालीन विचारधारा को स्वीकार नहीं करेगी। कूटनीति तो उन लोगों से भी संपर्क की मांग करती है, जिनके विचार हमारे राष्ट्रीय सिद्धांतों के एकदम खिलाफ होते हैं। समय की यही मांग है कि राष्ट्रीय हितों के लिए दुश्मन देश के दोस्त से भी बात की जाए।